Wednesday, August 20, 2008

अन्तरगाथा

चले थे किसी अँधेरे रास्ते में हम रौशनी करने
अपने अरमानों ख़्वाहिशों को हक़ीक़त बनाने
एक रेत के महल को हमने अपना घर बनाया था
पर कहीं से वो गुम हुई हवा का झोंका आया
मेरे महल को धराशायी कर गया
हर उस अरमान उस ख़्वाहिश को अपने साथ ले गया
उस रौशनी की लौ को भुझा गया
ना जाने ये उसकी दोस्ती थी या दुश्मनी
जो हर उस सुहाने पल को अपने साथ ले गयी
और एक चुभती हुई सी याद छोड़ गई
एक ख़लिश है मन में अभी
पता नहीं कब इस दर्द का इलाज मिलेगा
पर अभी मन की तमन्ना है कि बह चलूँ इस हवा के संग
उस ग़म को भुलाना इतना भी आसां नहीं
पर दुनिया की ज़ंजीरों में उलझी हुई हूँ मैं
अपने इस ग़म को अपनी हँसी के पीछे छुपा रही हूँ मैं

2 comments:

  1. nice poem...i have 1 suggestion for u..
    change ur theme(color) of blog ...in white in black after few minutes it becomes harsh to the eyes..

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  2. @ Ankit
    thanku for your comment and suggestion
    but i am unable to recognize u

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